पत्नी के अंतिम संस्कार व तेरहवीं के बाद रिटायर्ड पोस्टमैन मनोहर बाबू गाँव छोड़कर मुम्बई में अपने बेटे मनीष के बड़े से मकान में आये हुए थे। मनीष बहुत मनुहार के बाद उन्हें यहाँ ला पाया है। यद्यपि वह पहले भी कई बार प्रयास कर चुका था किंतु अम्मा ही बाबूजी को यह कह कर रोक देती थीं कि “कहाँ वहाँ बेटे-बहू की ज़िंदगी में दखल देने चलेंगे। यहीं ठीक है। सारी जिंदगी यहीं गुजरी है और जो थोड़ी सी बची है उसे भी यहीं रह कर काट लेंगे। ठीक है न।”
बस अम्मा जी के आगे बाबूजी की इच्छा मर जाती। पर इस बार कोई साक्षात अवरोध नहीं था और पत्नी की स्मृतियों में बेटे के स्नेह से अधिक ताकत नहीं थी, इसलिए मनोहर बाबू आखिरकार मुंबई आ ही गए हैं।
मनीष एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनी में इंजीनियर है। उसने मुंबई में एक आलीशान घर व गाड़ी ले रखी थी।
घर में घुसते ही मनोहर बाबू अचानक ठिठक कर रुक गए। गुदगुदी मैट पर पैर रखे ही नहीं जा रहे थे उनके। दरवाजे पर उन्हें रुका देख कर मनीष बोला – “अरे आइये ना बाबूजी, अंदर आइये।”
मनोहर बाबू – “बेटा, मेरे गन्दे पैरों से यह कालीन गन्दी तो नहीं हो जाएगी।”
मनीष – “अरे बाबूजी, आप उसकी चिंता न करें। आइये यहाँ सोफे पर बैठ जाइए।”
सहमें हुए कदमों से चलते हुए मनोहर बाबू जैसे ही सोफे पर बैठे तो उनकी चीख निकल गयी – अरे रे! मर गया रे!!
उनके बैठते ही नरम औऱ गुदगुदे सोफे की गद्दी अन्दर तक धँस गयी थी। इससे मनोहर बाबू चिहुँक कर चीख पड़े थे।
चाय पीने के बाद मनीष ने मनोहर से कहा – “बाबूजी, आइये आपको घर दिखा दूँ अपना।”
मनोहर बाबू – “जरूर बेटा, चलो।”
बाबूजी को घर दिखाते हुए मनीष ने बताया कि – “बाबू जी, यह लॉबी है जहाँ हम लोग बैठे चाय पी रहे थे। यहाँ जब भी कोई अतिथि आता है तो चाय नाश्ता और गपशप यहीं होती है। यह डाइनिंग हाल है, यहाँ पर हम लोग बैठकर खाना खाते हैं। बाबूजी, यह रसोई है और इसी से जुड़ा हुआ यह भण्डार घर है। यहाँ रसोई से सम्बंधित सामग्री रखी जाती हैं। यह बच्चों का कमरा है।”
तब मनोहर बाबू बोले – “तो बच्चे क्या अपने माँ बाप के साथ नहीं रहते?”
मनीष – “बाबूजी, यह शहर है और शहरों में मुंबई है। यहाँ बच्चे को जन्म से ही अकेले सोने की आदत डालनी पड़ती है। माँ तो बस समय समय पर उसे दूध पिला देती है और उसके शेष कार्य आया आकर कर जाती है।”
थोड़ा ठहर कर मनीष ने आगे कहा, “बाबूजी यह आपकी बहू और मेरे सोने का कमरा है और इस कोने में यह गेस्ट रूम है। कोई अतिथि आ जाए तो यहीं ठहरता है। यह छोटा सा कमरा पालतू जानवरों के लिए है। कभी कोई यदि कुत्ता वगैरह पाला गया तो उसके लिए व्यवस्था कर रखी है।”
सीढियां चढ़ कर दोनों ऊपर पहुँचे। मनीष ने मनोहर बाबू को लम्बी चौड़ी छत के एक कोने में बने एक टीन की छत वाले कमरे को खोल कर दिखाते हुए कहा – “बाबूजी यह घर का कबाड़खाना है। घर की सब टूटी-फूटी और बेकार वस्तुएं यहीं पर एकत्र कर दी जाती हैं। और दीवाली-होली पर इसकी सफाई कर दी जाती है। इधर सामने ही एक बाथरूम और टॉइलट भी बना हुआ है।”
मनोहर बाबू ने देखा कि इसी कबाड़ख़ाने के अंदर एक फोल्डिंग चारपाई पर बिस्तर लगा हुआ है और उसी पर उनका झोला भी रखा हुआ है। मन में चल रही सवालों की आंधी से निकलकर मनोहर बाबू ने जैसे ही पलट कर मनीष की तरफ देखा तब तक वह उन्हें वहां अकेला छोड़ सरपट नीचे जा चुका था।
मनोहर बाबू उस फोल्डिंग चारपाई पर बैठकर सोचने लगे कि “ये कैसा घर है जहाँ पाले जाने वाले जानवरों के लिए तो अलग से और अच्छे कमरे का विधान कर लिया जाता है किंतु बूढ़े माँ-बाप के लिए नहीं। इनके लिए तो कबाड़ का कमरा ही उचित आवास मान लिया गया है। नहीं…, अभी मैं ‘कबाड़’ नहीं हुआ हूँ। आज उन्हें एहसास हुआ कि मनीष की माँ की सोच बिल्कुल सही थी। उन्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।”
अगली सुबह जब मनीष अपने बाबूजी मनोहर के लिए चाय लेकर ऊपर आया तो उस कक्ष(कबाड़खाने) को खाली पाया। बाबू जी का झोला भी वहाँ नहीं था। उसने टॉयलेट व बाथरूम भी देख लिया किन्तु बाबूजी वहाँ भी नहीं थे। वह झट से उतर कर नीचे आया तो पाया कि मेन गेट खुला हुआ था। शायद मनोहर बाबू मनीष का घर छोड़कर जा चुके थे।
उधर मनोहर बाबू टिकट लेकर गाँव वापसी के लिए सबेरे वाली गाड़ी में बैठ चुके थे। उन्होंने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर देखा, उसमें उनके गांव वाले ‘अपने घर’ की चाभी मौजूद थी। उन्होंने उसे कस कर मुट्ठी में पकड़ लिया। पटरियों पर सरपट दौड़ती हुई गाड़ी में उनके चेहरे को छू रही हवा उनके इस निर्णय को और मजबूत बना रही थी।
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